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    'जिंदगी के सवालों से परेशान था, जुगनुमा से मिला जवाब:मनोज बाजपेयी बोले- इसकी तुलना दुनिया की किसी भी बेहतरीन फिल्म से हो सकती है

    19 hours ago

    मनोज बाजपेयी जल्द ही फिल्म ‘जुगनुमा’ के जरिए ऑडियंस के बीच बड़े पर्दे पर नजर आने वाले हैं।मैजिक रियलिज्म जॉनर की इस फिल्म में पहाड़ की खूबसूरती, वहां के लोगों की मासूमियत और 80 के दशक में रहस्यमयी तरीके जंगलों में लगने वाली आग की गुत्थी की कहानी है। ‘जुगनुमा’ के डायरेक्टर राम रेड्डी हैं और फिल्म को अकादमी विजेता गुनीत मोंगा और अनुराग कश्यप ने प्रोड्यूस किया है। ‘जुगनुमा’ 12 सितम्बर को थिएटर में रिलीज होने जा रही है। फिल्म के मुख्य किरदार मनोज बाजपेयी का कहना है कि ये फिल्म उनके जीवन के महान फिल्मों से एक है। साथ ही, देव का किरदार और उनमें काफी समानताएं हैं। मनोज, ‘जुगनुमा’ के मायने आपके लिए क्या है? जुगनुमा का मतलब होता है जुगनू की तरह। ये पूरी फिल्म जुगनू की तरह है। जैसे प्रकृति में वो एक मैजिक की तरह दिखाई देते हैं।हालांकि, शहरों में नहीं दिखते हैं। गांवों में एक खास सीजन में दिखाई देते हैं। मैं जिस जगह से आता हूं, वहां पर रात में जुगनू बहुत ज्यादा दिखते थे। एक मैजिक है और उसी मैजिक की तरह ये फिल्म है। पहाड़ में रहने वाले एक परिवार की कहानी है। उस परिवार के पास बहुत सारा बगीचा है। उन बगीचों का क्या होता है, जिससे उनकी पूरी जिंदगी बदल जाती है। ये फिल्म उस जर्नी को दिखाती है। इस फिल्म पर 6-7 साल से काम चल रहा था। लिखना, रिहर्सल और पूरा सेट अप करना। अब जाकर फिल्म यहां रिलीज हो रही है। इससे पहले ये फिल्म दुनिया के बड़े-बड़े फेस्टिवल का हिस्सा बनी और वहां सराहना मिली। मैं कहूंगा कि राम रेड्डी की सात साल की मेहनत रंग लाई है। राम रेड्डी अभी 35 साल के हैं। सोचिए, जब उन्होंने अपनी पहली फिल्म बनाई और जब जुगनुमा की तैयारियों में लगे तो कितने यंग थे। एक बहुत कम उम्र का आदमी, जिसमें कमाल की प्रतिभा है। उनका काम बड़े पर्दे पर लाकर मुझे बहुत ज्यादा गर्व हो रहा है। 'जुगनुमा' मेरे जीवन के कुछ महान फिल्मों में से एक है। राम रेड्डी जब पहली बार आपके पास कहानी लेकर आए, तब आपका रिएक्शन क्या था और इस फिल्म को चुनने की वजह क्या रही? इस फिल्म को चुनने की वजह राम रेड्डी की प्रतिभा है। राम ने जिस तरह से इसकी कहानी लिखी है, वो अपने आप में शानदार स्क्रिप्ट है। मुझे नहीं लगता कि मैं इस फिल्म को कभी ना बोल पाता। मैंने जब पहली बार स्क्रिप्ट पढ़ी थी, तभी मैंने राम से कहा था कि मैं इस फिल्म का हिस्सा होना चाहता हूं। वो पल और आज जब मैं इस फिल्म के बारे में बात कर रहा हूं, इस दौरान कभी भी ऐसा पल नहीं आया, जब मैंने इस फिल्म के बारे में नहीं सोचा हो। कई बार तो ये लगा कि बहुत बड़ी ब्लेसिंग है, जो मुझे इस फिल्म का हिस्सा बनने का मौका मिला। मेरे ख्याल से ये यात्रा लंबी चलनी वाली है। खासकर के इस फिल्म के साथ। मैं अपनी फिल्में नहीं देखता हूं लेकिन इस फिल्म को मैंने दो बार देख लिया है। पहली बार बर्लिन में राम ने मुझे जबरदस्ती बिठा लिया। ऑडियंस का रिएक्शन देख, मैं वहां से उठ नहीं पाया। राम ने ऐसी दुनिया रची है कि आप बतौर ऑडियंस उसमें मजबूरन शामिल हो जाएंगे। आपको लगेगा ही नहीं कि आप एक फिल्म देख रहे हैं। मेरे ख्याल में दर्शकों को ये एक्सपीरियंस बहुत कम मिलता है। ‘जुगनुमा’ के किरदार देव से निकलना आपके लिए कितना मुश्किल था? मैं चाहता हूं कि देव का किरदार मेरे अंदर से कभी नहीं निकले। देव बहुत ही स्पिरिचुअल है। वो प्रकृति के बारे में अपने कई सारे सवालों के जवाब ढूंढ रहा है। अपने अस्तित्व के बारे में जानना चाहता है। मेरे ख्याल में ये सवाल बड़े अच्छे हैं। इन सवालों के साथ जिंदगी भर रहा जा सकता है। क्या देव के किरदार और मनोज बाजपेयी में समानताएं हैं? हां…बहुत ज्यादा। खासकर, ये फिल्म मुझे उस वक्त मिली, जब मैं खुद इसी तरह के बहुत सारे सवालों से घिरा हुआ था। इस फिल्म को करते वक्त मुझे अपने कई सारे सवालों के जवाब भी मिले। कुछ सवालों के जवाब नहीं भी मिले। आपके लिए सबसे जटिल सवाल क्या है? मैं क्यों हूं? किसी भी इंसान के लिए सबसे जटिल सवाल यही होता है। इंसान जन्म लेता है और मर जाता है… तो क्या इंसान बस इसी चक्र को पूरा करने आता है? ये अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। इसी को समझने में लोगों ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। यहां तक कि कई जन्म लग गए। आपके लिए अदाकारी एक तपस्या की तरह है। क्या आपको एक्टिंग के जरिए उन सवालों का जवाब मिल पाता है? अदाकारी मेरे लिए सिर्फ अभिनय तक सीमित नहीं है। मैं भी इसका अनुभव लेता हूँ। जो भी किरदार निभाता हूं, एक्टिंग के जरिए उस चरित्र की जर्नी का हिस्सा बनता हूं। मैं चरित्र के दिमाग में, उसके सिस्टम में, उसकी रगो में घुसकर उसे महसूस करने को कोशिश करता हूं। जब तक मैं ये नहीं करता, मुझे मजा नहीं आता है। जब मैं किरदार में पूरी तरह खो जाता हूं, फिर मुझे लगता है कि मैं मनोज बाजपेयी के अलावा एक और इंसान को जी चुका हूं। मुझे दूसरे इंसान को समझने में मजा आता है। इस फिल्म को गुनीत मोंगा, अनुराग कश्यप के अलावा इंडस्ट्री के 15 बड़े नाम सपोर्ट कर रहे हैं। इसे कैसे देखते हैं? पहले तो मैं पूरी टीम की तरफ से सबका शुक्रिया अदा करता हूं। मेरे फेवरेट फिल्ममेकर्स ने मेरी फिल्म को देखा है। न सिर्फ इस इंडस्ट्री से बल्कि साउथ इंडस्ट्री से भी मेरे फेवरेट फिल्ममेकर्स ने फिल्म को देखी है। सबने एक सुर में फिल्म की तारीफ की है। 'जुगनुमा' ने उन सबको ही बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। उन सबने न सिर्फ फिल्म देखी बल्कि आगे बढ़कर इसे सपोर्ट कर रहे हैं। ये बहुत बड़ी शक्ति है। मैं इस तरह ही इंडस्ट्री की कल्पना करता हूं। मैं ऐसी ही इंडस्ट्री में आया था, जहां पर सब एक-दूसरे की काम की सराहना करते हैं। न कि पीठ पीछे एक-दूसरे की शिकायत करते हैं। या एक-दूसरे की सफलता से जलते हैं। या सामने वाले को नीचा जाते देखना चाहते हैं। मैंने कभी ऐसी इंडस्ट्री की परिकल्पना नहीं की थी। मैंने इसी तरह की इंडस्ट्री की परिकल्पना की थी, जहां पर सारे फिल्ममेकर, सारे क्रिएटर, एक्टर एक मंच पर साथ आए। एक-दूसरे के लिए ताली बजाएं। एक-दूसरे को हौसला दें और अनुभव शेयर करें। ये सबसे बड़ी बात होती है। अंततः जुगनुमा सबको एक मंच पर लेकर आ रहा है। मुझे इस बात की बेहद खुशी है। ‘जुगनुमा’ और आपके जीवन में एक जैसी मासूमियत देखने मिलती है। देव का किरदार निभाते समय किन बातों से रिलेट किया? मेरी और देव की मानसिकता अवस्था लगभग एक जैसी थी। इससे इस किरदार को निभाने और समझने में मुझे बहुत मदद मिली। देव की बाकी चीजें मेरे असल जीवन से मेल नहीं खाती हैं। देव एक बड़े परिवार से आता है, जिसके पास इतना बड़ा बगीचा है। लेकिन अब वो इन सारी चीजों से मुक्ति चाहता है। एक भरा पूरा परिवार है, जिसके साथ वो है भी और नहीं भी। उसके साथ दोनों स्थितियां हैं। ऐसी परिस्थिति मेरे साथ नहीं हैं। ऐसे में कई सारी चीजें कॉमन होते हुए भी कॉमन नहीं थीं। जो चीज मेरे जीवन में कॉमन नहीं थी, मैं उसे जीना चाहता था। मैं चाहता हूं कि दर्शक आए और देव की जादुई, चमत्कारी दुनिया को देखें। मेरे ख्याल में ये फिल्म दर्शकों के दिमाग में कई साल रहने वाली है। आजकल कई सारे एक्टर्स हर प्लेटफॉर्म पर कैसा भी काम कर रहे हैं। जबकि आप प्रोजेक्ट को लेकर बेहद चूजी हैं। फिल्टर करने की ये हिम्मत कहां से आती है? मैं कलाकार हूं और मैं कला को ढूंढता हूं। ‘जुगनुमा’, ‘डिस्पैच’ और ‘जोरम’ में जैसे प्रोजेक्ट में काम करके मुझे संतुष्टि मिलती है। मेरे अंदर के कलाकार का विकास होता है। मैं एक व्यक्ति के तौर पर अपने आप को काफी धनी महसूस करता हूं। जो चीज इतने लेवल पर मेरा भला कर रही हो, उससे जुड़ना मेरी जरूरत बन जाती है। ये मेरी आवश्यकता है। मैं शायद राम रेड्डी, कनु बहल, अनुराग कश्यप, देवाशीष मखीजा की जरूरत न हूं। लेकिन ये सब मेरी जरूरत हैं। अपने अंदर के कलाकार के साथ न्याय करने के लिए मैं ऐसी फिल्मों से जुड़ता हूं। इन फिल्ममेकर का हाथ पकड़कर उन्हें आगे धक्का मारता चलूं। ये मेरे लिए बहुत अच्छी बात है। हिंदुस्तान के सिनेमा के लिए भी अच्छी बात होगी कि जो भी सक्षम कलाकार हैं, वो इस तरह की फिल्मों को बढ़ावा दें। ‘जुगनुमा’, ‘जोरम’ जैसी फिल्मों को करने में क्या चैलेंज आते हैं? हर तरह की मुश्किलें आती हैं। सबसे पहली बात ये है कि पैसा बिल्कुल नहीं होता है। आप सिर्फ फेवर ले रहे होते हैं। जुगनुमा के साथ ऐसा नहीं था। राम रेड्डी के पिता उनके पीछे 24 घंटे खड़े रहे थे। वे अपने बेटे का सपना पूरा होते देखना चाहते थे। फिर हम लोग भी थे। मैं अभी तक राम के साथ हूं। हर मोड़ पर मैं उसके साथ रहा हूं। खासकर के इस फिल्म को लेकर। क्योंकि राम एक बहुत अनोखे फिल्ममेकर हैं। मैं चाहता हूं कि इस फिल्म के जरिए देश और दुनिया उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जाने। मैं ये कह सकता हूं कि इस फिल्म को दुनिया की किसी भी बेहतरीन फिल्म के साथ कंपेयर किया जा सकता है। चाहे तकनीक हो, डायरेक्शन हो या कहानी… हर तरीके से तुलना की जा सकती है। ‘जुगनुमा’ का यूनिक प्वाइंट क्या है? इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हो या इंडस्ट्री के फिल्ममेकर, सबको पसंद आ रही है। इसकी कहानी। मेरे हिसाब से यूनिक प्वाइंट राम रेड्डी का विजन है। असली लोगों के बारे में जो जादुई दुनिया उसने क्रिएटिव करने का सोचा, वो ही इस फिल्म का यूनिक प्वाइंट है।
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