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एक्टर-फिल्म मेकर फरहान अख्तर कोलकाता में आयोजित फिल्म '120 बहादुर' के प्रमोशनल इवेंट में दैनिक भास्कर से फिल्म मेकिंग की बारीकियों पर बात की। उन्होंने कहा कि किसी भी क्रिएटिव फील्ड में बिजनेस अहम रोल निभाता है। फिल्म के लिए भी यह बहुत जरूरी है। इसके साथ ही फरहान ने ऑडियंस की पसंद, ओटीटी के बाद सिनेमा में आए बदलाव के बारे में भी अपने विचार साझा किए। फिल्म मेकिंग में AI (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के बढ़ते प्रभाव के बारे में बात करते हुए फरहान ने कहा कि इमोशन्स तक पहुंच पाना AI के लिए अभी बहुत दूर की बात है। अभी ये समझना होगा कि AI को कैसे और कहां फिट किया जाए। फरहान अख्तर ने यह भी बताया कि VFX वगैरह के लिए AI बहुत शानदार होगा, लेकिन असली क्रिएटिविटी, मतलब लिखने की क्रिएटिविटी AI की पहुंच से बाहर है। पढ़िए फरहान अख्तर से हुई बातचीत के खास अंश.. सवाल- बतौर प्रोड्यूसर आप भी एक इन्वेस्टर होते हैं। कई बार किसी प्रोजेक्ट को लेकर आपका दिल हां कहता होगा लेकिन दिमाग कहता होगा इससे पैसे नहीं मिलेंगे? जवाब- ऐसा होता तो है। लेकिन फिर से, इन चीजों में आपको बैलेंस ढूंढना होता है। मुझे लगता है कि आपको यही करने में सक्षम होना चाहिए। आप किसी अच्छे आइडिया को सिर्फ इस वजह से ठुकरा नहीं सकते क्योंकि आपको लगता है कि इसकी ऑडियंस नहीं हैं। आपको जो करना है, वह यह है कि आपको उस आइडिया को बनाने, उस आइडिया को शेयर करने और उसे ऐसे तरीके से बताने का तरीका खोजना होगा जो असरदार हो। आपको यही करना है। और एक अच्छा प्रोड्यूसर वही होता है जो ऐसा कर पाता है। मेरा मतलब है कि अगर एक प्रोड्यूसर की आपकी परिभाषा यह है कि कोई आपके पास एक स्क्रिप्ट लेकर आया, आपने उसे पैसे दिए, और वह चला गया और उसने वह काम कर दिया', सच कहूं तो, आपको ऐसे कई प्रोड्यूसर मिल जाएंगे। लेकिन जो इंसान किसी ऐसी चीज को पहचान सके जो अच्छी हो, शायद खतरनाक हो, पर आप तभी सच में कामयाब होते हैं जब आप खतरा उठाते हैं। यही वह सुनहरी दुनिया है। अगर आप खतरा नहीं उठा रहे हैं, तो यह ऐसा है, जैसे क्या आप सिर्फ डिजाइन कर रहे हैं या सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग कर रहे हैं। मुझे लगता है कि यह कुछ ऐसा ही है। सवाल-मुझे लगता है कि एक्सेल एंटरटेनमेंट उन पहले प्रोडक्शन हाउस में से एक था जिन्होंने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जोखिम उठाया। क्या ओटीटी के बाद इंडस्ट्री में कोई बड़ा बदलाव आया है? जवाब- एक बदलाव तो आया है, लेकिन आपके सवाल के पहले हिस्से का जवाब देने के लिए, कोई फार्मूला नहीं है। मुझे लगता है कि अगर कोई यह कहता है कि वह जानता है कि इसे कैसे किया जाए, तो वह झूठ बोल रहा है। और अगर कोई जानता होता कि इसे कैसे किया जाए, तो वह इंसान हमेशा कामयाब रहता। ऐसा कभी नहीं हुआ है। दुनिया भर के सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई इंसान अपने पूरे करियर में सिर्फ़ कामयाब रहा हो। आपके करियर में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन आपको खुद को यह याद दिलाते ,रहना होगा कि मैं इस काम में क्यों हूं? मैंने 'दिल चाहता है' क्यों बनाई? करण जौहर ने 'कुछ कुछ होता है' क्यों बनाई? इन लोगों ने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? क्योंकि उनके पास एक कहानी थी जिसे वे बताना चाहते थे। वे कुछ ऐसा शेयर करना चाहते थे जो उनके लिए जरूरी था। और अगर आप किसी ऐसे इंसान में यह पहचान सकते हैं जो आपके पास आता है, जैसे कि 'मिर्जापुर’' के लेखक जब हमारे पास अपनी स्क्रिप्ट लेकर आए थे, वह बहुत ही... जैसे कि वह जिस तरह से इसके बारे में और उस दुनिया के बारे में बात करते थे, और वह जो करना चाहते थे, वह संक्रामक था। और जब आप लोगों से बात करेंगे, तो वे कहेंगे, क्या तुम पागल हो? यह क्या है? यह हिंसक है और इसमें बहुत ज्यादा गालियां हैं। लेकिन उन्हें भरोसा था, और उनके विश्वास ने हमें भदौरा दिलाया। तो यह भी जरूरी है। सवाल- OTT के आने के बाद इंडस्ट्री कैसे बदल गई है? क्या लोग अब कम से कम थिएटर जा रहे हैं क्योंकि उनके दिमाग में यही रहता है कि कुछ हफ्तों बाद ये मूवी OTT पर देख लूंगा? जवाब- मुझे लगता है कि ओटीटी के आने से सबसे अच्छी बात यह हुई है कि इसने फिल्म निर्माताओं को अपने काम के लिए और ज्यादा जिम्मेदार बना दिया है। एक समय था, जब एक औसत फिल्म भी कुछ ठीक-ठाक कमाई कर लेती थी, क्योंकि लोगों के पास करने के लिए और कुछ नहीं होता था। पहले लोग बाहर जाना चाहते थे। इस देश में मनोरंजन के मौक़े बहुत कम हैं। ऐसे बहुत सारे तरीके नहीं हैं जिनसे आप मनोरंजन कर सकें। अगर क्रिकेट चल रहा है, तो आप शायद कोई मैच देखने जा सकते हैं या टीवी देख सकते हैं। लेकिन ज्यादातर जब आप अपने परिवार के साथ बाहर जाते हैं, तो आप अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाते हैं। बाहर करने के लिए सच में बहुत ज्यादा चीजें नहीं हैं। और खास तौर पर उन शहरों में जहां खुली जगह बहुत ज़्यादा नहीं है। आप घर के अंदर रहना ज़्यादा पसंद करेंगे। आप एक ठंडे माहौल में रहना ज़्यादा पसंद करेंगे। यह ज्यादा सुरक्षित है। इसलिए फिल्में एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं। और एक समय था जहां एक औसत फिल्म और खराब फिल्म भी कुछ हद तक कमाई कर लेती थी। लेकिन अब आपके पास घर पर बैठने और दुनिया भर के कंटेंट को देखने का विकल्प है। यह अब सिर्फ भारतीय कंटेंट नहीं रहा है। मुझे लगता है कि फिल्म निर्माताओं के लिए यह एक बहुत बड़ा सबक है। आपको हमें ऐसी चीजें देनी होंगी जो हमें उत्साहित करें। हमें हमारी कुर्सियों से उठाएं। हमें हमारे घरों से बाहर निकालें। और हमें थिएटर में जाकर फिल्म देखने के लिए मजबूर करें। सवाल- लेकिन क्या आपको लगता है कि बॉलीवुड भी ऐसा ही कर रहा है? आपको लगता है… आप अभी के बॉलीवुड से खुश हैं? क्योंकि हाल ही में जो बातें सुनने को मिलती हैं, उससे तो… जवाब- देखो, मैं तो इंडस्ट्री के बहुत अंदर हूं, तो शायद बेहतर होगा कि आप इस सवाल का जवाब दो। क्योंकि कोई तो वजह होती है कि आपने किसी फिल्म का ट्रेलर देखा या उसके बारे में कुछ सुना और आपके अंदर से आवाज आई कि ये तो मुझे थिएटर में ही देखनी है। आखिर उस फिल्म में ऐसा क्या था जिसने आपको मजबूर किया कि इसे मैं बड़े पर्दे पर देखना चाहता हूं। जब ऐसा होता है, तो एक फिल्ममेकर के तौर पर समझ आता है कि दर्शक थिएटर आने को तैयार हैं। क्योंकि जो बिजनेस हमने पोस्ट-पैंडेमिक देखा है, वो प्री-पैंडेमिक के मुकाबले कहीं ज्यादा रहा है। पहले सबसे बड़ी हिट दंगल थी जिसने लगभग 300 करोड़ कमाए थे। लेकिन पैंडेमिक के बाद सिर्फ एक साल में पठान, जवान और एक तीसरी बड़ी फिल्म आईं, और इन तीनों ने लगभग 500 करोड़ का कलेक्शन किया उसी साल। तो ये बात नहीं है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। बात ये है कि आपको उन्हें एक्साइट करना पड़ेगा ताकि वो थिएटर आएं। सवाल- आजकल बड़ी बजट वाली फिल्में आती हैं। ऑडियंस जब थिएटर में फिल्म देखती है तो उनका सवाल होता है कि ये उतनी महंगी दिख भी नहीं रही जितना बोला जा रहा है। तो फिर पीछे की कहानी क्या है? जवाब- शायद पर्दे के पीछे कुछ ऐसा है जो हमें पता ही नहीं होता। सवाल- यही तो हम आपसे पूछ रहे हैं क्योंकि आप तो पर्दे के पीछे होते हैं? जवाब- नहीं, लेकिन मैंने अभी तक वो 300, 500 या 800 करोड़ वाली फिल्म बनाई ही नहीं है। तो मुझे भी ठीक-ठीक नहीं पता। हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बजट को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है ताकि लोगों को लगे कि ये बड़ी फिल्म है। ये पॉसिबल है। या फिर पैसा उन चीजों पर खर्च होता है जो स्क्रीन पर सीधे दिखती नहीं हैं। अब देखो, VFX—अच्छा VFX बहुत महंगा पड़ता है। क्योंकि ये बहुत ही स्पेशलाइज्ड और लेबर-इंटेंसिव काम है, और उसमें वाकई काफी पैसा लगता है। ज्यादातर VFX-हैवी फिल्में ही बाकी फिल्मों से ज्यादा बजट वाली होती हैं। लेकिन सच कहूं तो मुझे भी नहीं पता कि लोग अपना पैसा कहां और क्यों खर्च करते हैं। मेरा अंदाजा भी आपके अंदाजे जितना ही है। सवाल- क्या आपको लगता है, एक इनसाइडर होने के नाते, कि जनता की राय बॉलीवुड के प्रति अक्सर सही नहीं होती है? जवाब- मेरा मतलब है, कुछ बातें जरूर अनुचित होती हैं, लेकिन कुछ आलोचना वाकई कमाई हुई भी होती है। लोग फिल्मों में बहुत इन्वेस्टेड रहते हैं। लोग सच में मूवीज से प्यार करते हैं। जब आप अच्छा करते हो तो आपको उसका फायदा भी मिलता है। आपकी फिल्म हिट होती है, लोग आपकी तारीफ करते हैं, तो आपको लगता है कि वाह, मैंने कुछ कमाल कर दिया। लेकिन उसी तरह, जब आप कुछ अच्छा नहीं कर पाते, तो आपको उतनी ही विनम्रता रखनी चाहिए कि आप आलोचना भी सह सको और उसे चुपचाप स्वीकार कर सको। जब लोग तुम्हें क्रिटिसाइज करते हैं चाहे उन्हें खराब फिल्म देने के लिए, या उन्हें हल्के में लेने के लिए, या बस एक अधूरा-सा प्रोडक्ट परोसने के लिए तो मुझे लगता है ये चीज विनम्रता से स्वीकार करनी चाहिए और कहना चाहिए कि ठीक है, अगली बार बेहतर करूंगा। किसी न किसी लेवल पर बॉलीवुड एक तरह का बली का बकरा बन जाता है। बहुत सारी चीजों के लिए हमें आसानी से निशाना बनाया जा सकता है, क्योंकि सब कुछ पब्लिक में होता है। जो भी होता है, ज्यादातर पब्लिक के सामने ही होता है। लोग जानना चाहते हैं कि हमारी जिंदगी में क्या चल रहा है। और मुझे लगता है कि बदकिस्मती से इंडस्ट्री के तौर पर हमने अब तक ये नियम या सीमाएं तय नहीं कीं कि क्या ठीक है और क्या नहीं। ये सीमाएं आपको खेलों में साफ दिखाई देती हैं। जैसे आप किसी क्रिकेटर से कोई बहुत पर्सनल सवाल नहीं पूछ सकते, या उनकी निजी जिंदगी में दखल देकर मनमाने ढंग से उनके बारे में लिख नहीं सकते। वहां एक तय की हुई सीमा है, और वो सीमा खुद खिलाड़ियों ने मिलकर बनाई है ताकि लोग उनकी जिंदगी में ज्यादा अंदर तक न घुस पाएं। वो चाहते हैं कि उनका खेल ही उनके लिए बोले। मुझे लगता है कि फिल्म वालों को भी यही करना चाहिए, हमारी फिल्में ही हमारी असली पहचान हों, न कि हमारी निजी जिंदगी। मतलब आपकी पहचान आपके काम से होनी चाहिए। सिर्फ इंस्टाग्राम पर फॉलोअर्स बढ़ाने के लिए ये दिखाना कि देखो मैं क्या खाता हूं, क्या पीता हूं, जूते कहां से खरीदता हूं, या मेरा बेड स्विच कैसा दिखता है, इस सबका कोई असली मतलब नहीं है। क्योंकि ये टिकट सेल्स में जरा भी ट्रांसलेट नहीं होता। ऐसे में आप बस सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनकर रह जाते हो, जिसका आपके करियर पर कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए ये जो सीमाएं हैं, मुझे लगता है वो बहुत जरूरी हैं, लेकिन अफसोस अब तक तय ही नहीं की गईं। सवाल- तो ये तो पब्लिक के लिए हुआ, लेकिन आप खुद क्या चाहेंगे? मतलब आपको बॉलीवुड में कौन-सा बदलाव देखना अच्छा लगेगा? सिर्फ सेटिंग या इमेज की बात नहीं, बल्कि और कौन-से असली बदलाव आप इंडस्ट्री में चाहते हैं? जवाब- मुझे ज्यादा से ज्यादा मल्टी-स्टारर फिल्में देखना अच्छा लगेगा। क्योंकि ये वही चीज है जिसके साथ हम बड़े हुए हैं। तब टैलेंट लगातार एक-दूसरे के साथ काम करता था। मैं खुद अमिताभ बच्चन को देखकर बड़ा हुआ हूँ। उस वक्त शायद ही उनकी तीन-चार फिल्में ऐसी होंगी जो सिर्फ उन्हीं पर बेस्ड हों। ज्यादातर वो दूसरे एक्टर्स के साथ काम कर रहे होते थे और दूसरे एक्टर्स उनके साथ। वही चीज हमने बाद में अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ और सनी देओल के साथ भी देखी। लेकिन अब अचानक ऐसा हो गया है कि एक्टर्स साथ में काम ही नहीं करते। टैलेंट आपस में एकसाथ आने से कतराता है। और ये सच में थोड़ा दुखद है, क्योंकि ऑडियंस के लिए ये बेहद शानदार अनुभव होता है कि जिन कलाकारों को वो पसंद करते हैं, जिन्हें वो admire करते हैं, उन्हें स्क्रीन पर साथ देखना। तो हां, मैं तो चाहता हूं कि किसी न किसी तरह से मल्टी-स्टारर फिल्मों की वापसी हो। सवाल- AI अब वाकई बड़ा टॉपिक बन गया है और पूरी-की-पूरी फिल्में भी AI से बनने लगी हैं। तो सवाल ये है कि ये हमारी इंडस्ट्री को कैसे बदलेगा? जवाब- अभी तो ये सब काफी शुरुआती दौर में है, इसलिए ये कहना मुश्किल है कि इसका असली असर क्या होगा। लेकिन हां, ये एक पावरफुल टूल है और हर फिल्ममेकर इसे किसी न किसी तरह इस्तेमाल करेगा। पर मुझे लगता है कि आखिर में असली इंसानी इमोशन की जगह AI नहीं ले सकता। और मैं यहां सतही इमोशन की बात नहीं कर रहा बल्कि वो गहराई, वो कसक, वो कड़वाहट या निजी अहसास, जो हम अक्सर शेयर नहीं करते, लेकिन वो हमारे काम में झलकते हैं, जब हम लिखते हैं या क्रिएट करते हैं। AI अभी भी उसी पर आधारित है जो आप उसे बताते हो, जो आप शेयर करते हो। लेकिन कई बातें ऐसी होती हैं जो हम ज़ुबान पर नहीं लाते, फिर भी वो हमारी राइटिंग में उतर जाती हैं। वो कोने, जहां एक राइटर या डायरेक्टर अपने भीतर चला जाता है, ऐसी बातें और एहसास, जो वो कभी पब्लिकली शेयर नहीं करेगा अगर कोई उनसे सीधा सवाल भी पूछ ले। मुझे लगता है, उन इमोशंस तक पहुंच पाना AI के लिए अभी बहुत-बहुत दूर की बात है। अभी ये समझना होगा कि AI को कैसे और कहां फिट किया जाए। VFX वगैरह के लिए तो ये शानदार होगा, उसमें कोई शक नहीं। लेकिन असली क्रिएटिविटी, मतलब लिखने की क्रिएटिविटी वो तो मेरे हिसाब से AI से अभी भी बहुत, बहुत दूर है।